डॉ रवि रंजन सिंह भदौरिया
व्याख्याता, इतिहास विभाग
जे.एन. पी.जी. कॉलेज, लखनऊ
सारांश-1857 में भारतीय सैनिकों द्वारा किया गया विद्रोह, बंगाल में बैरकपुर कैंट में मंगल पांडे द्वारा प्रारम्भ किया गया था और मेरठ कैण्ट में विद्रोही भारतीय सिपाहियों ने इसे फैलाया। सामान्यतया भारतीय इतिहास में इसे विद्रोह के रूप में वर्णित किया गया। यह विद्रोह मुख्य रूप से गंगा बेसिन में दिल्ली से बिहार तक तथा उत्तर मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों तक फैला। इन क्षेत्रों में अधिकांश भारतीय सिपाही ईस्ट इंडिया कंपनी (कंपनी सरकार के नाम से ज्ञात) के सशस्त्र बलों के अधीन काम करते थे। ये सिपाही विद्रोह कर विभिन्न भारतीय राज्यों के देशभक्त शासकों/राजाओं की सेनाओें में शामिल हो गए।
भौगोलिक दृष्टि से विद्रोह के केंद्र दिल्ली, मेरठ, झाँसी और कानपुर शहरों के बीच स्थित होने के कारण इटावा जिला भी अशांति का केंद्र बन गया। इटावा जिले में विद्रोह के पूरे घटनाक्रम के प्रामाणिक स्रोत, इटावा के तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट और कलेक्टर, श्री एलन ऑक्टेवियन ह्यूम (ए.ओ.ह्यूम) और उनके वरिष्ठ अधिकारियों के बीच विद्रोह के दौरान आधिकारिक पत्राचार और जिला गजेटियर हैं।
इटावा शहर में विद्रोह की चिंगारी 22 मई 1857 को 9वीं देशी इन्फैंट्री की स्थानीय सेना की टुकड़ी द्वारा प्रज्ज्वलित की गई, लेकिन जल्द ही यह भड़क गई और भरेह राज्य के राजकुमार- कुवंर रूप सिंह के नेतृत्व में पूरे जिले में फैल गई। इस सेना की कमान एक बहादुर सेनानी – चंबल नदी के उत्तरी तट पर स्थित गढ़ैता गांव के ठाकुर गंगा सिंह के पास थी। दोनों ने स्थानीय लोगों की एक लड़ाकू सेना खड़ी करने में कामयाबी हासिल की। इस सेना में मैचलॉक बंदूकों, तलवारों और भालों से लैस 3000 से 5000 के बीच स्थानीय व्यक्ति षामिल थे। परिवहन के लिए स्थानीय घोडें और ऊंट भी शामिल थे। इस बल के कमाण्डर ठाकुर गंगा सिंह इतने शक्तिशाली हो गए कि उन्होंने कई महीनों तक तत्कालीन औरैया तहसील पर कब्जा कायम रखा। तत्कालीन औरैया तहसील में दलेल नगर का एक भाग और फफूंद (अब औरैया के नए बने जिले का लगभग आधा हिस्सा) के परगने शामिल थे। लड़ाकू बलों के वित्तपोषण और रखरखाव के लिए उन्होंने सरकारी खजाना लूट लिया तथा भू-राजस्व एकत्र किया। दोनों ने 2 साल से अधिक समय तक इटावा जिले और आसपास के जिलों के कुछ हिस्सों में विद्रोह का झंडा फहराया और कई जगहों पर सरकार की सेना के साथ लड़ाई लड़ी। इटावा के तत्कालीन कलेक्टर श्री ए.ओ.ह्यूम के अनुसार, सबसे बड़ी लड़ाई 7 फरवरी, 1858 को अनंतराम में ठाकुर गंगा सिंह के नेतृत्व वाली विद्रोही सेनों और सरकार की सेना के बीच लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सरकारी सेना का नेतृत्व श्री ए.ओ.ह्यूम ने किया तथा इस सेना में कैप्टन अलेक्जेंडर भी शामिल था। इस युद्ध के बारे में लिखते हुए श्री ह्यूम ने ठाकुर गंगा सिंह को भयंकर, खतरनाक और सबसे दृढ़ योद्धा बताया।
विद्रोह के नायक के बारे में
ईस्ट इंडिया कंपनी, जिसे उस समय कंपनी सरकार के नाम से जाना जाता था, के शासन के खिलाफ वर्ष 1857 में विद्रोह का नेतृत्व करने वाले नेताओं के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है, लेकिन ऐसे कई नायक भी हैं जिन्होंने अपने जीवन में संघर्ष किया और अपना सब कुछ बलिदान कर दिया, फिर भी वे इतिहास में कम वर्णित या अज्ञात ही रहे। भारत के इतिहास के पन्नों पर प्रमुख स्थान पाने वाले नेताओं में ज्यादातर शासक/राजा या बड़े जमींदार थे, जिनके पास मजबूत विदेशी शासकों के खिलाफ लड़ने के लिए व्यक्ति और सामग्री बढ़ाने के लिए पर्याप्त संसाधन थे। उनमें से, कुछ देशभक्ति के उत्साह के कारण विद्रोह में शामिल हुए, जबकि अन्य या तो उनकी संपत्ति पर कब्जा करने या कंपनी सरकार द्वारा उनकी राजनीतिक शक्ति हड़पने के कारण प्रतिशोध में शामिल हुए।
विद्रोह की शुरुआत बंगाल के बैरकपुर कैंट में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के एक सिपाही मंगल पांडे द्वारा की गई थी, परन्तु वास्तव में 10 मई, 1857 को इस विद्रोह को मेरठ कैंट में विद्रोही भारतीय सिपाहियों द्वारा फैलाया गया। इसके तुरंत बाद यह दिल्ली और तत्कालीन उत्तर-पश्चिम प्रांत (अब यू पी) के पश्चिमी हिस्सों में फैल गया। जन समूह से निकले इस विद्रोह में साहसी देशभक्तों और विदेशी शासकों के अन्याय और ज्यादतियों के शिकार लोग शामिल हो गए और इसे आगे बढ़ाया।
आम जनता के ऐसे कई बहादुर नायकों के नाम और प्रसिद्धि, जो लड़ने वाली ताकतों की रीढ़ थे, अभी भी भारत और ब्रिटेन में पुराने जिला गजेटियर्स या अभिलेखागार के अभिलेखों के नष्ट होते पन्नों में धूल खा रहे हैं। हालाँकि, पृष्ठभूमि में रहे ऐसे नायक जिन्होंने या तो लड़ाई के दौरान अपने प्राणों की आहुति दे दी या फाँसी पर चढ़ गए या जेलों में बंद होने के बाद अपनी संपत्ति खो दी, वे मातृभूमि के लिए किए गए अपने चरम बलिदानों के लिए कृतज्ञता के प्रतीक के रूप में भारतीय इतिहास में गौरवशाली श्रद्धांजलि, प्रशंसा और गौरवपूर्ण स्थान पाने के पात्र हैं।
डॉ. एस.आर.मेहरोत्रा और एडवर्ड सी.मौलटन द्वारा संकलित और संपादित ‘‘एलन ऑक्टेवियन ह्यूम का चयनित लेखन, खंड 1 ‘‘(लंदन में ब्रिटिश लाइब्रेरी दिल्ली में भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार, और लखनऊ में यू पी राज्य अभिलेखागार और सचिवालय रिकॉर्ड में पाए गए पुराने अभिलेखों पर आधारित), जिला गजेटियर और एस.ए.ए. रिजवी द्वारा ‘‘भारत में स्वतंत्रता संग्राम’’ नामक पुस्तक में तत्कालीन उत्तर पश्चिम प्रान्त (यू0पी0) के इटावा जिले के तत्कालीन कलेक्टर ए.ओ. ह्यूम (कार्यकाल 1856 से 1867) के आधिकारिक पत्र व्यवहार शामिल हैं। उक्त संकलन, गजेटियर व पुस्तक में ऐसे ही एक वीर यशस्वी नायक का नाम बहुत प्रमुखता से प्रकाश में आया। यह वीर नायक ग्राम गढ़ैता, जिला इटावा के ठाकुर गंगा सिंह थे, जिन्हें इटावा जिले के भरेह राज्य के कुँवर (कु0) रूप सिंह के नेतृत्व में विद्रोह के प्रमुख प्रस्तावक और कमांडर-इन-चीफ के रूप में वर्णित किया गया है। आधिकारिक पत्राचार में विभिन्न संदर्भों के तहत, गंगा सिंह को ‘‘सबसे खतरनाक, हिंसक और दृढ़ सेनानी’’ जैसे विशेषणों से अलंकृत किया गया था, हालांकि साथ ही ब्रिटिश शासकों के विरूद्ध विद्रोह व युद्ध छेड़ने वालों के लिए प्रयोग किए जाने वाले अपमानजनक शब्द यथा- ‘‘कुख्यात, विद्रोही, डकैत और हत्यारा’’ भी उनके लिए इस्तेमाल किए गए।
प्रारंभिक पृष्ठभूमि
ठाकुर गंगा सिंह, इटावा कस्बे से लगभग 40 किलोमीटर दूर, इटावा-आगरा राजमार्ग के पास चंबल नदी के बाएं किनारे पर स्थित गांव गढ़ैता के रहने वाले थे। भूमि का यह भाग यमुना और चम्बल नदियों के बीच स्थित है तथा उत्तर प्रदेश के आगरा व इटावा जिलों के कुछ हिस्से और मध्य प्रदेश के भिण्ड व मुरैना जिलों से आच्छादित है। इस क्षेत्र में ज्यादातर राजपूत समुदाय के सदस्य निवास करते हैं। इनमें से प्रमुख हैं भदौरिया राजपूत। गंगा सिंह, भदौरिया राजपूत थे और लेखक उनके पैतृक वंश में उनकी छठी पीढ़ी के हैं। यह क्षेत्र भदावर क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र के निवासी परंपरागत रूप से सदियों से बीते युग के शासकों की सशस्त्र सेनाओं में योद्धा रहे हैं। भारतीय वर्ण व्यवस्था में भी राजपूत समुदाय को मातृभूमि की सुरक्षा और सम्मान की रक्षा का कार्य सौंपा गया है। भारत के लिखित इतिहास में प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक उनके युद्ध कौशल को हमेशा मुगलों और ब्रिटिश शासकों द्वारा अच्छी तरह से पहचाना और स्वीकार किया गया। वर्तमान भारतीय सेना में भी राजपूत बटालियन के रूप में उनकी अलग पहचान है और लड़ाई, वीरता और निडरता के चुनौतीपूर्ण गुण उनके खून में समाहित हैं। यहां तक कि रोजमर्रा की जिंदगी में भी वे किसी भी कीमत पर अन्याय, छल और धोखे को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। इस क्षेत्र में पैदा हुए किसी भी लड़के की पहली प्राथमिकता अच्छा शरीर प्राप्त करने के लिए बॉडी बिल्डिंग है और नौकरी की प्राथमिकता में पहली पसन्द सशस्त्र बल तथा उसके बाद अन्य अर्धसैनिक बल या नागरिक पुलिस है।
इस प्रकार यह स्वाभाविक है कि ऐसे मानस और जीवन मूल्यों वाले लोग अपने साथ या आस-पास होने वाली अन्यायपूर्ण घटनाओं को बर्दाश्त या अनदेखा नहीं करते हैं और परिणामों की परवाह किए बिना, बिना किसी डर या पक्षपात के गलत काम करने वालों के खिलाफ तत्परता से खड़े हो जाते हैं। पैतृक गांव गढ़ैता के बुजुर्गों और परिवार के जीवित बुजुर्गों ने बताया कि ठाकुर गंगा सिंह ऐसे ही व्यक्तित्व के प्रतीक थे। उन्होनें एक जमींदार के मध्यम वर्गीय परिवार में जन्म लिया था। उनके पास अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए बहुत कुछ था और वे एक सभ्य जीवन जीते थे। उनकी समृद्धि का प्रमाण अभी भी उनके पैतृक गांव में मौजूद है। वहॉं ईंट और चूना से बना एक मेहराबदार प्रवेश द्वार का खंडहर अभी भी उनकी परित्यक्त और बर्बाद गृहस्थी की गवाही के रूप में खड़ा है जिसे गांव में ‘‘हवेली’’ के नाम से जाना जाता है। उन दिनों ग्रामीण भारत में ईंट और चूने से बना घर दुर्लभ था क्योंकि केवल कुछ ही लोग यह हैसियत रखते थे। उनके बारे में यह भी बताया जाता है कि वह एक हाथी के गौरवान्वित मालिक थे। उन दिनों यह दुर्लभ संपत्ति और समृद्धि का प्रतीक था।
उनके वीरतापूर्ण कार्यों की यादें उनके पैतृक गांव में पीढ़ियों से चली आ रही है और बुजुर्गों द्वारा उन्हें आज भी एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपने नेतृत्व गुणों और मजबूत शरीर के कारण आसपास के गांवों पर अपना अधिकार और प्रभाव स्थापित किया था। ऐसी स्थिति में शक्तिषाली व्यक्तियों द्वारा धमकी दिए जाने, शोषण किये जाने अथवा परेशान किये जाने पर समाज के पीड़ित और असहाय लोग मदद और सहायता के लिए ऐसे लोगों के पास जाना शुरू कर देते हैं। विदेशी शासन के शुरूआती दिनों (उन्नीसवीं सदी के मध्य) के दौरान, सुदूर ग्रामीण इलाकों में कानून और व्यवस्था के लिए सरकारी तंत्र की उपस्थिति बहुत कम थी और प्रभाव बहुत सीमित था। परिणामस्वरूप ग्रामीणों के बीच छोटे-मोटे विवादों का निपटारा ठाकुर गंगा सिंह जैसे गांव के स्थानीय प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा किया जाता था। उनके दबंग स्वभाव और सत्तावादी रवैये के कारण, पुलिस विभाग (जिसे उस समय कंपनी सरकार में ठगी और डकैती विभाग के रूप में जाना जाता था) ने उन्हें एक समानांतर प्रशासन चलाने वाला माना और वह पुलिस के लिए आंख की किरकिरी बन गए। कंपनी सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में भी हर जगह अपनी सत्ता और शक्ति को मजबूत करना चाहती थी लेकिन ठाकुर गंगा सिंह उनके रास्ते में एक बाधा के रूप में सामने आये और पुलिस प्रशासन के कोप भाजन बने। उक्त कारणों से पुलिस विभाग उन्हें वश में करने और सबक सिखाने के लिए अवसर की तलाश में था।
एक अवसर पर दो प्रतिद्वंद्वी समूहों के बीच गाँव के एक विवाद में मध्यस्थता करते समय स्थिति ने भयानक मोड़ ले लिया जिसकी परिणिति युद्धरत समूहों के बीच हत्या और आगजनी में हुई। ऐसी ही एक भयानक घटना में गंगा सिंह को भी फंसाया गया और उन्हें वर्ष 1856 में इटावा जेल में डाल दिया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार के पुलिस विभाग ने अदालत में मुकदमा चलाने के लिए उनके खिलाफ झूठे आरोप लगाए लेकिन चूँकि गंगा सिंह अपनी सत्यनिष्ठा और शोषित व पीड़ितों के प्रति मददगार रवैये के लिए जाने जाते थे, इसलिए आम जनता द्वारा उनका व्यापक सम्मान किया जाता था। इसलिए पुलिस को उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों को साबित करने के लिए कोई गवाह नहीं मिल सका, फिर भी उन्हें बिना किसी मुकदमे के लगभग एक साल तक अवैध रूप से जेल में हिरासत में रखा गया। कम्पनी सरकार के इस अन्यायपूर्ण व्यवहार ने ठाकुर गंगा सिंह के भीतर विदेशी शासकों के खिलाफ क्रोध और प्रतिशोध की आग प्रज्वलित कर दी और सर्वशक्तिमान ने उन्हें जल्द ही उत्पीड़कों के खिलाफ अपना गुस्सा निकालने का मौका दिया।
एक विद्रोही नेता के रूप में
भारतीय सैनिकों द्वारा बंगाल में बैरकपुर कैंट में प्रारंभिक सांकेतिक विद्रोह के बाद वास्तविक विद्रोह 10 मई, 1857 को तत्कालीन उत्तर-पश्चिम प्रांत के मेरठ कैंट में शुरू हुआ और जल्द ही 11 मई, 1857 को दिल्ली तक फैल गया। विद्रोही सैनिकों ने विद्रोह का संदेश फैलाने और भारतीय सैनिकों और पुलिस कर्मियों को भी विदेशी शासकों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित करने के लिए अन्य छावनियों और जिला मुख्यालयों की ओर बढ़ना शुरू कर दिया। 22 मई, 1857 को जब 9वीं देशी इन्फैंट्री की एक स्थानीय टुकड़ी और पुलिस ने विद्रोह कर दिया, तो इटावा जिला मुख्यालय में भी व्रिदोह प्रारम्भ हो गया। विद्रोही इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने सरकारी कोशागार, कचहरी (जिला कार्यालय) व डाकघर पर हमला कर दिया। कैदियों को मुक्त कराने के लिए जिला जेल के दरवाजे खोल दिए गए। 2 जिला मजिस्ट्रेट श्री ए.ओ.ह्यूम सहित यूरोपीय अधिकारियों और उनके परिवारों को इटावा से भागकर यमुना नदी के पार भाग कर एक सुरक्षित स्थान बढपुरा पुलिस स्टेशन में दो दिन के लिए शरण लेनी पड़ी।3 इटावा शहर विद्रोहियों के नियंत्रण में रहा और उन्होंने तहसील का खजाना, यूरोपीय अधिकारियों के कार्यालय और आवासीय बंगले लूट लिये। किसी तरह 25 मई, 1857 को, मिस्टर ह्यूम ने ईस्ट इंडिया कंपनी का समर्थन करने वाली एक पड़ोसी रियासत ग्वालियर की ग्रेनेडियर रेजिमेंट से आए अतिरिक्त सैनिकों की मदद से, इटावा शहर पर पुनः कब्जा कर लिया।
यह घटना विद्रोहियों द्वारा जिला जेल खोलने की अवधि का था। विद्रोहियों द्वारा अदालती आदेश के बिना जेल में बंद ठाकुर गंगा सिंह को जेल से बाहर निकाला गया और वे जल्द ही इटावा पर कब्जा करने वाली विद्रोही ताकतों में शामिल हो गए। यदि वे अपराधी होते जैसा कि प्रशासन द्वारा अपराधी के तौर पर आरोपित किया गया था तो वह खुद को किसी भी आगामी कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए कायरों की तरह भागकर गुमनामी के अन्धकार में छिप जाते, लेकिन इसके विपरीत, जेल में बिना किसी मुकदमे के अवैध और लंबे समय तक कारावास (लगभग एक वर्ष) के कारण सरकार के प्रति बदले की भावना से प्रेरित व देशभक्ति के उत्साह में उन्होंने चुने हुए रास्ते में परिणाम और जोखिम को अच्छी तरह से जानते हुए भी विद्रोही बलों में शामिल हुए। उसी समय जिला इटावा के भरेह राज्य के स्वर्गीय राजा के छोटे भाई कुं. रूप सिंह, झाँसी की रानी – लक्ष्मी बाई, उनके कमांडर-इन-चीफ तात्या टोपे और कानपुर के नाना साहब के साथ मिलकर मैदान में कूद पड़े। कुं0 रूप सिंह के पास संसाधन की उपलब्धता और प्रजा पर प्रभाव होने के कारण वे जल्द ही अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए एक बड़ी लड़ाकू सेना खड़ी करने में सफल रहे, और इस तरह वह इटावा जिले में विद्रोहियों के नेता बन गए। अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए गंगा सिंह जल्द ही उनकी सेना का समर्थन करने के लिए उनके साथ शामिल हो गए और अपनी अनुकरणीय बहादुरी और साहस से कुं0 रूप सिंह की सेना के मुख्य कमांडर बन गए। विद्रोह को दबाने के बाद श्री ह्यूम ने अपने वरिष्ठ अधिकारी को दिनांक 4 दिसंबर, 1860 को एक पत्र लिखते हुए गंगा सिंह को इटावा जिले में विद्रोह का प्रमुख प्रेरक और कमांडर-इन-चीफ बताया।
इटावा जिले में विद्रोह 22 मई, 1857 को शुरू हुआ और जुलाई-अगस्त, 1859 के आसपास समाप्त हुआ। इस अवधि में सरकारी बलों और कुंवर रूप सिंह की सेनाओं के बीच झड़पों से लेकर भीषण युद्ध तक हुआ इनमें से अधिकांश की कमान गंगा सिंह के पास थी। इन मुठभेड़ों मे यमुना-चम्बल बेल्ट का सम्पूर्ण क्षेत्र आच्छादित था। इस संघर्ष में आगरा जिले का बाह-पिनहाट क्षेत्र से लेकर पूर्व की ओर यमुना नदी पर शेरगढ़ घाट तक, औरैया-जालौन रोड पर और फिर यमुना नदी के उत्तरी किनारे पर दलेलनगर और फफूंद के परगने तथा यमुना नदी का उत्तरी क्षेत्र तत्कालीन इटावा जिले का दक्षिण पूर्वी भाग (अब नया बना जिला औरैया की औरैया तहसील) शामिल था। वास्तव में उपरोक्त परगना कई महीनों तक दोनों विद्रोही सेनाओं के नियंत्रण में रहा जहाँ उन्होंने लड़ाकू बलों के वित्तपोषण और रखरखाव के लिए सरकारी खजाने को लूटा और किसानों से भू-राजस्व एकत्र किया। विद्रोही ताकतों द्वारा औरैया के पास यमुना नदी पर शेरगढ़ घाट पर और इटावा-कानपुर रोड पर अनंतराम में दो चौकियां बनाई गईं। श्री ह्यूम ने विद्रोहियों और सरकार के बीच सभी मुठभेड़ों में से दो को सबसे भयंकर और खतरनाक बताया। इनमें से सबसे भीषण लड़ाई अनंतराम की लड़ाई थी।
अनंतराम का युद्ध (7 फरवरी 1858)
अनंतराम इटावा-कानपुर रोड पर इटावा जिले से लगभग 32 किलोमीटर दूर एक छोटा सा कस्बा है। यह परगना दलेलनगर की सीमा पर है। परगना दलेलनगर और परगना औरैया, नवंबर 1857 से कुंवर रूप सिंह के कब्जे में थे और लगभग सितंबर, 1858 तक उनके ही अधिकार में रहे। इटावा जिले से इन परगनों की ओर आने वाले सरकारी बलों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए गंगा सिंह की कमान के तहत अनंतराम में एक मजबूत चौकी बनाई गई। 7 फरवरी, 1858 को श्री ह्यूम ने कैप्टन अलेक्जेंडर की सहायता से 110 सवारों, एक फील्ड गन (तोप) और लगभग 700 सशस्त्र सिपाहियों की घुड़सवार सेना के साथ अनंतराम की चौकी पर छापा मारा। दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ। एक का नेतृत्व श्री ह्यूम और कैप्टन अलेक्जेंडर ने संयुक्त रूप से किया और दूसरे का नेतृत्व गंगा सिंह ने किया। श्री ह्यूम ने लड़ाई का वर्णन करते हुए सरकार को संबोधित अपने पत्र दिनांक 4 दिसंबर 1860 में लिखा कि गंगा सिंह ने कैप्टन एलेक्जेंडर के पास, घोड़े पर सवार होकर, 50 गज तक पहुंचने का साहस किया और उन्हें निशाना बनाकर गोली चलाई। गोली कैप्टन एलेक्जेंडर की दाढ़ी के बाल उड़ा ले गई, परन्तु वे चमत्कारिक ढंग से मौत से बच गए। यह घटना गंगा सिंह द्वारा दुश्मन से लड़ते समय दिखाए गए साहस, वीरता और निडरता को दर्शाती है। हालाँकि गंगा सिंह को मजबूत घुड़सवार सेना, सरकार की फील्ड गन की बेहतर मारक क्षमता और सैनिकों व सामग्री की संख्या अधिक होने के कारण पीछे हटना और भागना पड़ा। ह्यूम के अनुसार फिर भी यह इटावा जिले में लड़ी गई सबसे भीषण लड़ाई थी। अनंतराम की लड़ाई का वर्णन समाप्त करते हुए श्री ह्यूम ने बहुत स्पष्ट रूप से लिखा कि हालांकि विद्रोहियों की हार हुई और उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा, फिर भी उन्होंने तलवारों, भालों और मैचलॉक आग्नेयास्त्र के साथ बहुत दृढ़ता से लड़ाई लड़ी, लेकिन वे सफल नहीं हुए। इससे पता चलता है कि यद्यपि विद्रोहियों के पास केवल पुराने पारंपरिक हथियार थे, कोई तोपखाना नहीं था और वे संख्या में भी कम थे फिर भी वे इतनी बहादुरी से लड़े कि उनके दुश्मन को भी उनकी वीरता की प्रशंसा करनी पड़ी।
इसी पत्र में एक अन्य स्थान पर श्री ह्यूम लिखते हैं कि गंगा सिंह के नेतृत्व में सेनाएं कई हफ्तों तक मैदान में उनके खिलाफ लड़ती रहीं। सरकार को विभिन्न प्रेषणों में श्री ह्यूम द्वारा इटावा जिले में विद्रोह के संबंध में लिखे गए लेख में उन्होंने गंगा सिंह को सबसे खतरनाक और साहसी सेनानी के रूप में वर्णित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लड़ाई में गंगा सिंह की प्रमुखता के कारण श्री ह्यूम, गंगा सिंह के प्रति इतने क्रूर और प्रतिशोधी हो गए थे कि उन्होंने अपने एक पत्र में सरकार को लिखा कि गंगा सिंह यदि लड़ाई के दौरान उसके हाथ लग जाते, तो वह उसे किसी भी दशा में माफ न करते हुए निकटतम पेड़ पर रस्सी से लटका देता।8
इटावा के नाजिम
सरकार के साथ कई मुठभेड़ों के बाद, ठाकुर गंगा सिंह इतने साहसी, निर्भीक और अनुभवी सेनानी बन गए थे कि जून 1858 तक सरकारी सेनाएं उन्हें गिरफ्तार करने या मारने में विफल रहीं। जून 1858 की शुरुआत में उन्होंने जिला प्रशासन को चिढ़ाने और बदनाम करने के लिए खुद को इटावा का नाजिम (एक राजस्व अधिकारी) घोषित कर दिया। यह उल्लेख 13 जून, 1858 को समाप्त सप्ताह के लिए, इटावा के लिए विदेश विभाग की (फॉरेन डिपार्टमेंट्स नैरेटिव फॉर इटावा) रिपोर्ट में किया गया था।
पड़ोसी जिलों में विद्रोह
गंगा सिंह इटावा जिले में भयानक विद्रोही नेता बनने के अलावा तत्कालीन उत्तर-पश्चिम प्रांत (अब यू पी) के आसपास के जिलों आगरा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद, कानपुर और ग्वालियर राज्य के भिंड जिले में भी सक्रिय हो गए। मार्च 1858 की शुरुआत में गंगा सिंह ने लगभग 1000 व्यक्तियों की सेना के साथ आगरा जिले की बाह तहसील के बाह शहर को घेर लिया तथा तहसील कार्यालय और बाद में पुलिस स्टेशन पर हमला कर दिया जिसके दौरान सभी सरकारी अधिकारी मारे गए। यह घटना 13 मार्च, 1858 को समाप्त सप्ताह के लिए आगरा जिले के लिए विदेशी विभाग की रिपोर्ट में दर्ज की गई थी। इसके तुरंत बाद जवाबी कार्रवाई में, बहुत बड़ी संख्या में सरकारी बलों ने बाह तहसील के कई गांवों जैसे लाखन पुर, बसौनी, नोरा, और खूनियार खेड़ा पर हमला किया और तलाशी ली। सरकारी बलों का आरोप था कि गंगा सिंह ने इन गांवों का इस्तेमाल कथित तौर पर क्षेत्र में विद्रोही गतिविधियों की योजना बनाने और उन्हें अंजाम देने के लिए अपने मुख्यालय के रूप में किया था।
एक अन्य अवसर पर उन्होंने आगरा जिले की बाह तहसील के हटकांत थाने पर हमला किया और थाने पर तैनात दफादार की हत्या कर दी।11 ये हमले सरकार को कमजोर और हतोत्साहित कर, क्षेत्र से बाहर कर, क्षेत्र पर प्रभावी नियत्रण कर, विद्रोही बलों के वित्त पोशण के लिए राजस्व एकत्र करने की रणनीति का हिस्सा थे। इन गतिविधियों के कारण इलाके में उनका बहुत खौफ था और आगरा के कमिश्नर को उनका सिर काटने या गिरफ्तार करने पर 5000 रुपये का इनाम घोषित करना पड़ा।
भिंड जिले में उनकी विद्रोही गतिविधियों ने ग्वालियर राज्य के राजनीतिक एजेंट को गंगा सिंह के साथ शांति स्थापित करने का प्रयास करने के लिए मजबूर किया लेकिन श्री ह्यूम ने इसका विरोध किया। 16 सितंबर, 1859 को पत्र लिखकर उन्होंने गंगा सिंह को पकड़ने या खत्म करने के लिए ग्वालियर के महाराजा से मदद मांगी। मैनपुरी जिले में भी गंगा सिंह को गिरफ्तार करवाने या सर काटकर लाने वाले को 50 हजार रुपये का इनाम देने की घोशणा की। सरकारी बलों के ऐसे शत्रुतापूर्ण रवैये के बावजूद बहादुर स्वतंत्रता सेनानी ने अपना झंडा फहराये रखा और ब्रिटिश सरकार द्वारा 1 नवंबर, 1858 को आम माफी की घोषणा के बाद भी लंबे समय तक ब्रिटिष सरकार के लिये सबसे बड़ा कांटा बने रहे। विद्रोह की अंतिम चिंगारी बुझ जाने और सितंबर, 1858 में विद्रोह के चरम के दौरान उनकी संपत्ति जब्त कर लिये जाने पर भी उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया।
हालाँकि, विद्रोह के अंतिम चरण में कुछ विद्रोही नेता अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तारी, अपमान और संभावित मृत्युदंड से बचने के लिए नेपाल भाग गए लेकिन गंगा सिंह, अपनी गिरफ्तारी के बाद होने वाले परिणामों से पूरी तरह अवगत होने पर भी भागे नहीं और लड़ते हुए शहादत की प्रतीक्षा करते हुए बिना रुके अपनी गतिविधियाँ जारी रखीं। लेकिन शायद उनकी नीति परायणता, नैतिकता व संघर्ष के उचित कारण के परिणामस्वरूप नियति ने कार्रवाई का एक अलग तरीका तैयार किया। अंततः ब्रिटिश सरकार द्वारा सामान्य माफी की घोषणा के कई दिनों बाद, सितंबर 1859 के अंत में उन्हें गिरफ्तार कर आगे की सुनवाई के लिए जेल भेज दिया गया। चूंकि शहर में विद्रोह के पहले चरण के दौरान विद्रोहियों द्वारा इटावा जेल के दरवाजे खोले जाने पर वह जेल से भाग गये थे, इसलिए राज्य के खिलाफ विद्रोह के आपराधिक आरोपों के साथ-साथ उनके खिलाफ लंबित मामलों के साथ उसका न्यायिक मुकदमा शुरू हुआ। यहां ब्रिटिश न्यायपालिका की भूमिका आती है, जो उन्हें दोषी साबित करने के लिए उनके खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों के सबूत चाहती थी। उनके खिलाफ पहले कथित अपराधों के लिए अभियोजन पक्ष फिर से कोई सबूत पेश करने में विफल रहा।
प्रतिषोधी पुलिस द्वारा झूठे आरोप लगाये जाने के कारण उनके सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, कोई भी व्यक्ति ठाकुर गंगा सिंह के खिलाफ सबूत देने के लिए आगे नहीं आया।
जहां तक विद्रोही गतिविधियों के आरोपों का संबंध है, ब्रिटिश सरकार ने स्थिति को सुधारने के लिए तब तक उन विद्रोहियों के प्रति जो केवल अपनी मातृभूमि के लिए लड़े थे किसी स्वार्थ के लिए नहीं अपना रवैया नरम कर लिया था। साथ ही आपराधिकता का निर्णय विश्वासघात और छल द्वारा जघन्य अपराधों में लिप्तता के आधार पर किया गया। लेकिन गंगा सिंह के मामले में ऐसा कोई अपमानजनक साक्ष्य नहीं मिला। यद्यपि श्री ह्यूम अपने वरिष्ठ अधिकारियों को विभिन्न प्रेषणों में लिखते रहे थे कि भरेह राज के कुंवर रूप सिंह और ठाकुर गंगा सिंह पूरे विद्रोह के दौरान इटावा जिले में उनके सबसे बड़े सिरदर्द बने रहे। फिर भी उन्होंने उनके खिलाफ कोई झूठा आरोप नहीं लगाया और अभियोजन पक्ष को स्वतंत्र रूप से कोई भी उपलब्ध साक्ष्य एकत्र करने की अनुमति दी। इसके विपरीत, भरेह राज के कुंवर रूप सिंह के मामले में उनके बिना शर्त आत्मसमर्पण पर (गंगा सिंह की गिरफ्तारी से पहले) उनकी बिना शर्त माफी की सिफारिश करते हुए श्री ए.ओ.ह्यूम ने इसे प्रमाणित किया। खुद इटावा जिले के कलेक्टर जिन्होंने सरकारी बलों का नेतृत्व किया था तथा रूप सिंह और उनके नेतृत्व में विद्रोहियों की सेनाओं का जहां भी सामना हुआ, भरपुर तरीके से लड़े। श्री ह्यूम ने स्वीकार किया कि वे अपनी मातृभूमि के लिए लड़े तथा उन्होंने कुंवर रूप सिंह को बिना शर्त माफी देने की संस्तुति की। सरकार ने इस संस्तुति को स्वीकार कर लिया। श्री ह्यूम की यह धारणा एक सेनानी के रूप में गंगा सिंह के अच्छे आचरण की अप्रत्यक्ष स्वीकृति थी जिनकी वीरता और साहस की उन्होंने विद्रोह के चरम दौरान भी प्रशंसा की। किसी साक्ष्य के अभाव में गंगा सिंह को बरी करना ब्रिटिश सरकार के मानवीय रवैये एवं ब्रिटिश अदालतों की उच्च सत्यनिष्ठा का सबूत है जिसने परोक्ष रूप से उनके जैसे कैदियों को मातृभूमि के लिए स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में माना। उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया गया। इस प्रकार ठाकुर गंगा सिंह को 25 नवंबर, 1859 को सम्मानपूर्वक जेल से रिहा कर दिया गया।3
ठाकुर गंगा सिंह का दो वर्षों से अधिक समय तक शक्तिशाली सरकारी बलों के खिलाफ लंबा संघर्ष उनके धैर्य और अदम्य साहस का पर्याप्त प्रमाण है। जिस वास्तविक उद्देश्य के लिए उन्होंने लड़ाई लड़ी स्थानीय जनता ने उन्हें गुप्त रूप से ही सही पूरा समर्थन दिया जिसका प्रदर्शन तब और अधिक हुआ जब अदालत में मुकदमा चलाये जाने पर किसी भी व्यक्ति ने उनके खिलाफ गवाही नहीं दी। ऐसे असाधारण लोग और उनके काम अक्सर केवल उनके परिवारों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे गांव और उनके जन्म स्थान के क्षेत्र के लिए भी उदाहरण बन जाते हैं, और उनकी यादें मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं। ठाकुर गंगा सिंह ऐसे ही व्यक्तित्व थे, जिन्होंने अपनी वीरता और देशभक्ति की खुशबू छोड़ी जिस पर गांव के बुजुर्गों और उनके परिवार के वंश के सदस्य आज भी गर्व महसूस करते हैं।
संदर्भ
1. एलन ऑक्टेवियन ह्यूम चयनित लेखन, खंड 1 (1829-1867) उत्तर भारत में जिला प्रशासन, विद्रोह और सुधार द्वारा एस.आर.मेहरोत्रा और एडवर्ड मौल्टान -पृष्ठ 304
2. इटावा जिला का गजेटियर, अध्याय-2, इतिहास, पृष्ठ 41
3. उपरोक्त इंगित गजेटियर, पृष्ठ 41-42
4. एलन ऑक्टेवियन ह्यूम का चयनित लेखन, खंड 1 (1829-1867) उत्तर भारत में जिला प्रशासन, विद्रोह और सुधार द्वारा एस.आर.मेहरोत्रा और एडवर्ड मौल्टान पृष्ठ 303
5. पूर्वोक्त पुस्तक, पृष्ठ 112-113
6. इटावा जिला का गजेटियर अध्याय–2, पृष्ठ 43-44
7. एलन ऑक्टेवियन ह्यूम का चयनित लेखन, खंड 1 (1829-1867), उत्तर भारत में जिला प्रशासन, विद्रोह और सुधार द्वारा एस.आर.मेहरोत्रा और एडवर्ड मौल्टन पृष्ठ 304
8. पूर्वोक्त पुस्तक पृष्ठ 304
9. उत्तर प्रदेश में स्वतंत्रता संग्राम, भाग 5 द्वारा एस.ए.ए.रिजवी पृष्ठ, 787
10. उपर्युक्त पुस्तक, पृष्ठ, 916
11. आगरा का जिला गजेटियर खंड टप्प् 1905 पृष्ठ 280 जैसा कि एस.ए.ए.रिजवी द्वारा उत्तर प्रदेश में स्वतंत्रता संग्राम में रिपोर्ट किया गया है